पंडित दीनदयाल उपाध्याय (Pandit Deen Dayal Upadhyay) - आचार्य श्री श्यामल किशोर जी महाराज

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2017

पंडित दीनदयाल उपाध्याय (Pandit Deen Dayal Upadhyay)

पं. दीनदयाल उपाध्याय जी का जीवन
उत्तर प्रदेष के मथुरा जिले के नगला चन्द्रभान ग्राम में 25 सितम्बर, 1916 को सुप्रसिद्ध ज्योतिषी पं. हरीराम उपाध्याय के पौत्र पं. भगवती प्रसाद की पत्नी श्रीमती राम प्यारी ने प्रातः सूर्य की प्रथम किरण के साथ जिस बालक को जन्म दिया, वहीं बड़ा होकर पं. दीनदयाल उपाध्याय के नाम से जाना गया।


पंडित दीनदयाल उपाध्याय (Pandit Deen Dayal Upadhyay)
का जन्म 25 सितंबर, 1916 को ब्रज के मथुरा ज़िले के छोटे से गांव जिसका नाम “नगला चंद्रभान” था, में हुआ था. पं. दीनदयाल उपाध्याय का बचपन घनी परेशानियों के बीच बीता. दीनदयाल के पिता का नाम ‘भगवती प्रसाद उपाध्याय’ था. इनकी माता का नाम ‘रामप्यारी’ था जो धार्मिक प्रवृत्ति की थीं. दीनदयाल जी के पिता रेलवे में काम करते थे लेकिन जब बालक दीनदयाल सिर्फ तीन साल के थे तो उनके पिता का देहांत हो गया और जब तक उन्होंने सातवां वसंत देखा तब तक उन पर से मां का भी साया हट चुका था. 7 वर्ष की कोमल अवस्था में दीनदयाल माता-पिता के प्यार से वंचित हो गए थे.

दीनदयाल ने किसी तरह से पढ़ाई पूरी की उसके बाद उन्होंने नौकरी न करने का निश्चय किया और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लिए काम करना शुरू कर दिया. संघ के लिए काम करते-करते वह खुद इसका एक हिस्सा बन गए और राष्ट्रीय एकता के मिशन पर निकल चले.
पंडित दीनदयाल उपाध्याय (Pandit Deen Dayal Upadhyay) का जीवन
पं. दीनदयाल (Pandit Deen Dayal Upadhyay) की एक और बात उन्हें सबसे अलग करती है और वह थी उनकी सादगी भरी जीवनशैली. इतना बड़ा नेता होने के बाद भी उन्हें जरा सा भी अहंकार नहीं था.
पं. दीनदयाल उपाध्याय जी का सादगी भरा जीवन


दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितंबर, 1916 को मथुरा जिले के छोटे से गाँव नगला चंद्रभान में हुआ था. इनके पिता का नाम भगवती प्रसाद उपाध्याय था. माता रामप्यारी धार्मिक वृत्ति की थीं. रेल की नौकरी होने के कारण उनके पिता का अधिक समय बाहर बीतता था. कभी-कभी छुट्टी मिलने पर ही घर आते थे. थोड़े समय बाद ही दीनदयाल के भाई ने जन्म लिया जिसका नाम शिवदयाल रखा गया.


पंडित दीनदयाल उपाध्याय का बाल्यकाल बेहद कष्टों में गुजरा. बहुत छोटी सी उम्र में पिता का साया सिर से उठ गया था. अपने प्रयासों से उन्होंने शिक्षा-दीक्षा हासिल की. बाद के समय में भारतीय विचारों से ओतप्रेत नेताओं का साथ मिला. यहीं से उनके जीवन में बदलाव आया लेकिन जो कष्ट उन्होंने बचपन में उठाये थे, उन कष्टों के चलते वे पूरी जिंदगी सादगी से जीते रहे. विद्यार्थियों के प्रति उनका विशेष अनुराग था. वे चाहते थे कि समाज में शिक्षा का अधिकाधिक प्रसार हो ताकि लोग अधिकारों के साथ कर्तव्यों के प्रति जागरूक हो सकें. उन्हें इस बात का रंज रहता था कि समाज में लोग अधिकारों के प्रति तो चौंकन्ने हैं लेकिन कर्तव्य पूर्ति की भावना नगण्य हैं. उनका मानना था कि कर्तव्यपूर्ति के साथ ही अधिकार स्वयं ही मिल जाता है. उन्होंने अपने जीवनकाल में एकात्म मानववाद का जो सिद्वांत प्रतिपादित किया, वह आज दशकों बाद भी सामयिक बना हुआ है.


एकात्म मानववाद के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय का मानना था कि भारतवर्ष विश्व में सर्वप्रथम रहेगा तो अपनी सांस्कृतिक संस्कारों के कारण. उनके द्वारा स्थापित एकात्म मानववाद की परिभाषा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ज्यादा सामयिक है. उन्होंने कहा था कि मनुष्य का शरीर,मन, बुद्धि और आत्मा ये चारों अंग ठीक रहेंगे तभी मनुष्य को चरम सुख और वैभव की प्राप्ति हो सकती है. जब किसी मनुष्य के शरीर के किसी अंग में कांटा चुभता है तो मन को कष्ट होता है , बुद्धि हाथ को निर्देशित करती है कि तब हाथ चुभे हुए स्थान पर पल भर में पहुँच जाता है और कांटें को निकालने की चेष्टा करता है. यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. सामान्यत: मनुष्य शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा इन चारें की चिंता करता है. मानव की इसी स्वाभाविक प्रवृति को पं. दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद की संज्ञा दी. उन्होंने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के सिद्धांत पर जोर दिया उन्होनें कहा कि संस्कृति-प्रधान जीवन की यह विशेषता है कि इसमें जीवन के मौलिक तत्वों पर तो जोर दिया जाता है पर शेष बाह्य बातों के संबंध में प्रत्येक को स्वतंत्रता रहती है. इसके अनुसार व्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रत्येक क्षेत्र में विकास होता है. संस्कृति किसी काल विशेष अथवा व्यक्ति विशेष के बन्धन से जकड़ी हुई नहीं है, अपितु यह तो स्वतंत्र एवं विकासशील जीवन की मौलिक प्रवृत्ति है. इस संस्कृति को ही हमारे देश में धर्म कहा गया है. जब हम कहतें है कि भारतवर्ष धर्म-प्रधान देश है तो इसका अर्थ मजहब, मत या रिलीजन नहीं, अपितु यह संस्कृति ही है. उनका मानना था कि भारत की आत्मा को समझना है तो उसे राजनीति अथवा अर्थ-नीति के चश्मे से न देखकर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ही देखना होगा. भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के द्वारा न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा ही होगी.


समाज में जो लोग धर्म को बेहद संकुचित दृष्टि से देखते और समझते हैं तथा उसी के अनुकूल व्यवहार करते हैं, उनके लिये पंडित दीनदयाल उपाध्याय की दृष्टि को समझना और भी जरूरी हो जाता है. वे कहते हैं कि विश्व को भी यदि हम कुछ सिखा सकते हैं तो उसे अपनी सांस्कृतिक सहिष्णुता एवं कर्तव्य-प्रधान जीवन की भावना की ही शिक्षा दे सकते हैं, राजनीति अथवा अर्थनीति की नहीं. उसमें तो शायद हमको उनसे ही उल्टे कुछ सीखना पड़े. अर्थ, काम और मोक्ष के विपरीत धर्म की प्रमुख भावना ने भोग के स्थान पर त्याग, अधिकार के स्थान पर कर्तव्य तथा संकुचित असहिष्णुता के स्थान पर विशाल एकात्मता प्रकट की है. इनके साथ ही हम विश्व में गौरव के साथ खड़े हो सकते हैं.


पंडित दीनदयाल उपाध्याय की अध्ययन-अध्ययपन में रूचि थी. वे श्रेष्ठ साहित्य का निरंतर अध्ययन करते रहे हैं. उनके हिंदी और अंग्रेजी के लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे. केवल एक बैठक में ही उन्होंने ‘चंद्रगुप्त नाटक’ लिख डाला था. वे मानते थे कि समाज तक सूचना पहुंचाने और उन्हें जागरूक बनाने के लिये पत्रकारिता से अलग और श्रेष्ठ माध्यम कुछ भी नहीं है. इसी सोच के साथ उन्होंने लखनऊ में राष्ट्र धर्म प्रकाशन नामक प्रकाशन संस्थान की स्थापना की और अपने विचारों को प्रस्तुत करने के लिए एक मासिक पत्रिका राष्ट्र धर्म शुरू की. बाद में उन्होंने ‘पांचजन्य’ (साप्ताहिक) तथा ‘स्वदेश’ (दैनिक) की शुरुआत की. पंडित उपाध्याय बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे. इस महान व्यक्तित्व में कुशल अर्थचिन्तक, संगठनशास्त्री, शिक्षाविद्, राजनीतिज्ञ, वक्ता, लेखक व पत्रकार आदि जैसी प्रतिभाएं छुपी थीं. पं. दीनदयाल उपाध्याय महान चिंतक और संगठक थे. पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जन्मदिवस पर हम उनका स्मरण तो करते हैं बल्कि आज जरूरत है कि हम उनके बताये रास्ते पर चलें और भारत की सांस्कृतिक विविधता को विस्तार देकर एक नये भारत का निर्माण करें.