राम जन्म भूमि (अयोध्या) - आचार्य श्री श्यामल किशोर जी महाराज

रविवार, 26 फ़रवरी 2017

राम जन्म भूमि (अयोध्या)


अयोध्या की खूनी कहानी जिसे पढ़कर आप रो पड़ेंगे।
अगर आप को अपने हिन्दू धर्म पर गर्व है तो एक शेयर जरूर करे और दुसरो को भी सच्चाई से अवगत कराये !मित्रो लहू मै तोड़ा सा उबाल लाओ और हिन्दू होने पर शर्म ना करो आप सब को भगवान श्री राम की सौगंध इस सच्चाई को हर हिन्दू की टाइम लाइन और ग्रुप तक ले जाओ और एक क्रांति का उद्गोष करो !!
!कृपया सच्चे हिन्दुओं की संतानें ही इस लेख को पढ़ें। जब बाबर दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुआ उस समय जन्मभूमि सिद्ध महात्मा श्यामनन्द जी महाराज के अधिकार क्षेत्र में थी।
महात्मा श्यामनन्द की ख्याति सुनकर ख्वाजा कजल अब्बास मूसा आशिकान अयोध्या आये । महात्मा जी के शिष्य बनकर ख्वाजा कजल अब्बास मूसा ने योग और सिद्धियाँ प्राप्त कर ली और उनका नाम भी महात्मा श्यामनन्द के ख्यातिप्राप्त शिष्यों में लिया जाने लगा। ये सुनकर जलालशाह नाम का एक फकीर भी महात्मा श्यामनन्द के पास आया और उनका शिष्य बनकर सिद्धियाँ प्राप्त करने लगा। जलालशाह एक कट्टर मुसलमान था, और उसको एक ही सनक थी, हर जगह इस्लाम का आधिपत्य साबित करना । अत: जलालशाह ने अपने काफिर गुरू की पीठ में छुरा घोंपकर ख्वाजा कजल अब्बास मूसा के साथ मिलकर ये विचार किया की यदि इस मदिर को तोड़ कर मस्जिद बनवा दी जाये तो इस्लाम का परचम हिन्दुस्थान में स्थायी हो जायेगा। धीरे धीरे जलालशाह और ख्वाजा कजल अब्बास मूसा इस साजिश को अंजाम देने की तैयारियों में जुट गए । सर्वप्रथम जलालशाह और ख्वाजा बाबर के विश्वासपात्र बने और दोनों ने अयोध्या को खुर्द
मक्का बनाने के लिए जन्मभूमि के आसपास की जमीनों में बलपूर्वक मृत
मुसलमानों को दफन करना शुरू किया॥ और मीरबाँकी खां के माध्यम से
बाबर को उकसाकर मंदिर के विध्वंस
का कार्यक्रम बनाया। बाबा श्यामनन्द जी अपने मुस्लिम
शिष्यों की करतूत देख के बहुत दुखी हुए और अपने
निर्णय पर उन्हें बहुत पछतावा हुआ। दुखी मन से बाबा श्यामनन्द जी ने
रामलला की मूर्तियाँ सरयू में प्रवाहित किया और खुद हिमालय
की और तपस्या करने चले गए। मंदिर के पुजारियों ने मंदिर के
अन्य सामान आदि हटा लिए और वे स्वयं मंदिर के द्वार पर
रामलला की रक्षा के लिए खड़े
हो गए। जलालशाह
की आज्ञा के अनुसार उन चारो पुजारियों के सर काट लिए गए.
जिस समय मंदिर को गिराकर मस्जिद बनाने की घोषणा हुई उस समय
भीटी के
राजा महताब सिंह बद्री नारायण की यात्रा करने के लिए
निकले थे,अयोध्या पहुचने पर रास्ते में उन्हें ये खबर
मिली तो उन्होंने अपनी यात्रा स्थगित कर दी और अपनी छोटी सेना में
रामभक्तों को शामिल कर १ लाख चौहत्तर हजार लोगो के साथ बाबर
की सेना के ४ लाख ५० हजार सैनिकों से लोहा लेने निकल पड़े।
रामभक्तों ने सौगंध ले रक्खी थी रक्त की आखिरी बूंद तक
लड़ेंगे जब तक प्राण है तब तक मंदिर नहीं गिरने देंगे।
रामभक्त वीरता के साथ लड़े ७० दिनों तक घोर
संग्राम होता रहा और अंत में राजा महताब सिंह समेत
सभी १ लाख ७४ हजार रामभक्त मारे गए। श्रीराम
जन्मभूमि रामभक्तों के रक्त से लाल हो गयी। इस भीषण कत्ले आम के
बाद मीरबांकी ने
तोप लगा के मंदिर गिरवा दिया ।
मंदिर के मसाले से ही मस्जिद का निर्माण
हुआ पानी की जगह मरे हुए हिन्दुओं का रक्त इस्तेमाल
किया गया नीव में लखौरी इंटों के साथ ।
इतिहासकार कनिंघम अपने लखनऊ गजेटियर के
66वें अंक के पृष्ठ 3 पर लिखता है की एक लाख चौहतर हजार
हिंदुओं की लाशें गिर जाने के पश्चात मीरबाँकी अपने मंदिर
ध्वस्त करने के अभियान मे सफल हुआ और उसके बाद
जन्मभूमि के चारो और तोप लगवाकर मंदिर को ध्वस्त कर
दिया गया..
इसी प्रकार हैमिल्टन नाम का एक अंग्रेज बाराबंकी गजेटियर में
लिखता है की " जलालशाह ने हिन्दुओं के खून का गारा बना के
लखौरी ईटों की नीव मस्जिद बनवाने के लिए दी गयी थी। "
उस समय अयोध्या से ६ मील की दूरी पर सनेथू नाम का एक गाँव के
पंडित देवीदीन पाण्डेय ने वहां के आस पास के
गांवों सराय सिसिंडा राजेपुर आदि के सूर्यवंशीय
क्षत्रियों को एकत्रित किया॥
देवीदीन पाण्डेय ने सूर्यवंशीय क्षत्रियों से
कहा भाइयों आप लोग मुझे अपना राजपुरोहित मानते
हैं ..अप के पूर्वज श्री राम थे और हमारे पूर्वज
महर्षि भरद्वाज जी। आज मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम
की जन्मभूमि को मुसलमान
आक्रान्ता कब्रों से पाट रहे हैं और खोद रहे हैं इस परिस्थिति में
हमारा मूकदर्शक बन कर जीवित रहने की बजाय
जन्मभूमि की रक्षार्थ युद्ध करते करते
वीरगति पाना ज्यादा उत्तम होगा॥
देवीदीन पाण्डेय की आज्ञा से दो दिन के भीतर ९० हजार
क्षत्रिय इकठ्ठा हो गए दूर दूर के गांवों से लोग समूहों में
इकठ्ठा हो कर देवीदीन पाण्डेय के नेतृत्व में जन्मभूमि पर
जबरदस्त धावा बोल दिया । शाही सेना से लगातार ५
दिनों तक युद्ध हुआ । छठे दिन मीरबाँकी का सामना देवीदीन
पाण्डेय से हुआ उसी समय धोखे से उसके अंगरक्षक ने एक
लखौरी ईंट से पाण्डेय जी की खोपड़ी पर वार कर दिया। देवीदीन
पाण्डेय का सर बुरी तरह फट गया मगर उस वीर ने अपने
पगड़ी से खोपड़ी से बाँधा और तलवार से उस कायर अंगरक्षक
का सर काट दिया। इसी बीच मीरबाँकी ने
छिपकर गोली चलायी जो पहले ही से घायल देवीदीन पाण्डेय
जी को लगी और वो जन्मभूमि की रक्षा में वीर
गति को प्राप्त हुए..जन्मभूमि फिर से 90 हजार हिन्दुओं के रक्त से
लाल हो गयी।
देवीदीन पाण्डेय के
वंशज सनेथू ग्राम के ईश्वरी पांडे का पुरवा नामक जगह पर
अब भी मौजूद हैं॥
पाण्डेय जी की मृत्यु के १५ दिन बाद हंसवर के महाराज
रणविजय सिंह ने सिर्फ २५ हजार सैनिकों के साथ मीरबाँकी की विशाल
और शस्त्रों से
सुसज्जित सेना से रामलला को मुक्त कराने के लिए आक्रमण किया ।
10 दिन तक युद्ध
चला और महाराज जन्मभूमि के रक्षार्थ
वीरगति को प्राप्त हो गए। जन्मभूमि में 25 हजार हिन्दुओं का रक्त फिर
बहा।
रानी जयराज कुमारी हंसवर के स्वर्गीय महाराज रणविजय सिंह
की पत्नी थी।जन्मभूमि की रक्षा में महाराज के
वीरगति प्राप्त करने के बाद महारानी ने उनके कार्य
को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाया और तीन हजार
नारियों की सेना लेकर उन्होंने जन्मभूमि पर हमला बोल
दिया और हुमायूं के समय तक उन्होंने छापामार युद्ध जारी रखा। रानी के
गुरु स्वामी महेश्वरानंद जी ने
रामभक्तों को इकठ्ठा करके सेना का प्रबंध करके जयराज
कुमारी की सहायता की। साथ ही स्वामी महेश्वरानंद
जी ने सन्यासियों की सेना बनायीं इसमें उन्होंने २४ हजार
सन्यासियों को इकठ्ठा किया और रानी जयराज कुमारी के
साथ , हुमायूँ के समय में कुल १० हमले जन्मभूमि के उद्धार के
लिए किये। १०वें हमले में शाही सेना को काफी नुकसान
हुआ और जन्मभूमि पर रानी जयराज कुमारी का अधिकार
हो गया।
लेकिन लगभग एक महीने बाद हुमायूँ ने पूरी ताकत से शाही सेना फिर
भेजी ,इस युद्ध में स्वामी महेश्वरानंद और
रानी कुमारी जयराज कुमारी लड़ते हुए अपनी बची हुई
सेना के साथ मारे गए और जन्मभूमि पर
पुनः मुगलों का अधिकार हो गया। श्रीराम जन्मभूमि एक बार फिर कुल 24
हजार सन्यासियों और 3 हजार वीर नारियों के रक्त से लाल हो गयी।
रानी जयराज कुमारी और स्वामी महेश्वरानंद जी के बाद यद्ध
का नेतृत्व स्वामी बलरामचारी जी ने अपने हाथ में ले
लिया। स्वामी बलरामचारी जी ने गांव गांव में घूम कर
रामभक्त हिन्दू युवकों और सन्यासियों की एक मजबूत
सेना तैयार करने का प्रयास किया और जन्मभूमि के
उद्धारार्थ २० बार आक्रमण किये. इन २० हमलों में काम से
काम १५ बार स्वामी बलरामचारी ने जन्मभूमि पर
अपना अधिकार कर लिया मगर ये अधिकार अल्प समय के
लिए रहता था थोड़े दिन बाद बड़ी शाही फ़ौज
आती थी और जन्मभूमि पुनः मुगलों के अधीन
हो जाती थी..जन्मभूमि में लाखों हिन्दू बलिदान होते रहे।
उस समय का मुग़ल शासक अकबर था। शाही सेना हर दिन के इन
युद्धों से कमजोर हो रही थी.. अतः अकबर ने बीरबल और टोडरमल के
कहने पर खस की टाट से उस चबूतरे पर ३ फीट का एक
छोटा सा मंदिर बनवा दिया. लगातार युद्ध करते रहने के
कारण स्वामी बलरामचारी का स्वास्थ्य
गिरता चला गया था और प्रयाग कुम्भ के अवसर पर
त्रिवेणी तट पर स्वामी बलरामचारी की मृत्यु
हो गयी ..
इस प्रकार बार-बार के
आक्रमणों और हिन्दू जनमानस के रोष एवं हिन्दुस्थान पर मुगलों की
ढीली होती पकड़ से बचने का एक राजनैतिक प्रयास की अकबर की इस
कूटनीति से कुछ दिनों के लिए जन्मभूमि में रक्त नहीं बहा।
यही क्रम शाहजहाँ के समय भी चलता रहा।
फिर औरंगजेब के हाथ
सत्ता आई वो कट्टर मुसलमान था और उसने समस्त भारत से
काफिरों के सम्पूर्ण सफाये का संकल्प लिया था। उसने लगभग 10 बार
अयोध्या मे
मंदिरों को तोड़ने का अभियान चलकर यहाँ के सभी प्रमुख
मंदिरों की मूर्तियों को तोड़ डाला।
औरंगजेब के समय में समर्थ गुरु श्री रामदास
जी महाराज जी के शिष्य श्री वैष्णवदास जी ने
जन्मभूमि के उद्धारार्थ 30 बार आक्रमण किये। इन
आक्रमणों मे अयोध्या के आस पास के गांवों के सूर्यवंशीय
क्षत्रियों ने पूर्ण सहयोग दिया जिनमे सराय के ठाकुर
सरदार गजराज सिंह और राजेपुर के कुँवर गोपाल सिंह
तथा सिसिण्डा के ठाकुर जगदंबा सिंह प्रमुख थे। ये सारे
वीर ये जानते हुए भी की उनकी सेना और हथियार
बादशाही सेना के सामने कुछ भी नहीं है अपने जीवन के
आखिरी समय तक शाही सेना से लोहा लेते रहे। लम्बे समय तक चले इन
युद्धों में रामलला को मुक्त कराने के लिए हजारों हिन्दू वीरों ने
अपना बलिदान दिया और अयोध्या की धरती पर उनका रक्त बहता रहा।
ठाकुर
गजराज सिंह और उनके साथी क्षत्रियों के वंशज आज भी सराय मे
मौजूद हैं। आज
भी फैजाबाद जिले के आस पास के सूर्यवंशीय क्षत्रिय
सिर पर
पगड़ी नहीं बांधते,जूता नहीं पहनते, छता नहीं लगाते,
उन्होने अपने पूर्वजों के सामने ये प्रतिज्ञा ली थी की जब
तक श्री राम जन्मभूमि का उद्धार नहीं कर लेंगे तब तक
जूता नहीं पहनेंगे,छाता नहीं लगाएंगे, पगड़ी नहीं पहनेंगे।
1640 ईस्वी में औरंगजेब ने मन्दिर को ध्वस्त करने के लिए जबांज
खाँ के नेतृत्व में एक
जबरजस्त सेना भेज दी थी, बाबा वैष्णव दास के साथ साधुओं की एक
सेना थी जो हर विद्या मे निपुण थी इसे
चिमटाधारी साधुओं की सेना भी कहते थे । जब
जन्मभूमि पर जबांज खाँ ने आक्रमण किया तो हिंदुओं के
साथ चिमटाधारी साधुओं की सेना की सेना मिल
गयी और उर्वशी कुंड नामक जगह पर जाबाज़ खाँ
की सेना से सात दिनों तक भीषण युद्ध किया ।
चिमटाधारी साधुओं के चिमटे के मार से
मुगलों की सेना भाग खड़ी हुई। इस प्रकार चबूतरे पर स्थित
मंदिर की रक्षा हो गयी ।
जाबाज़ खाँ की पराजित सेना को देखकर औरंगजेब बहुत
क्रोधित हुआ और उसने जाबाज़ खाँ को हटाकर एक अन्य
सिपहसालार सैय्यद हसन अली को 50 हजार
सैनिकों की सेना और तोपखाने के साथ अयोध्या की ओर भेजा और साथ
मे
ये आदेश दिया की अबकी बार जन्मभूमि को बर्बाद करके वापस
आना है ,यह समय सन् 1680 का था ।
बाबा वैष्णव दास ने सिक्खों के
गुरु गुरुगोविंद सिंह से युद्ध मे सहयोग के लिए पत्र के
माध्यम संदेश भेजा । पत्र पाकर गुरु गुरुगोविंद सिंह सेना समेत तत्काल
अयोध्या आ
गए और ब्रहमकुंड पर अपना डेरा डाला । ब्रहमकुंड वही जगह
जहां आजकल गुरुगोविंद सिंह
की स्मृति मे सिक्खों का गुरुद्वारा बना हुआ है।
बाबा वैष्णव दास एवं सिक्खों के
गुरुगोविंद सिंह रामलला की रक्षा हेतु एकसाथ रणभूमि में कूद पड़े ।इन
वीरों कें सुनियोजित हमलों से
मुगलो की सेना के पाँव उखड़ गये सैय्यद हसन
अली भी युद्ध मे मारा गया। औरंगजेब हिंदुओं की इस
प्रतिक्रिया से स्तब्ध रह गया था और इस युद्ध के बाद 4 साल तक
उसने अयोध्या पर
हमला करने की हिम्मत नहीं की।
औरंगजेब ने सन् 1664 मे एक बार फिर श्री राम
जन्मभूमि पर आक्रमण किया । इस
भीषण हमले में शाही फौज ने लगभग 10 हजार से ज्यादा हिंदुओं
की हत्या कर दी नागरिकों तक को नहीं छोड़ा। जन्मभूमि हिन्दुओं के रक्त
से लाल हो गयी। जन्मभूमि के अंदर नवकोण के एक कंदर्प कूप
नाम का कुआं था, सभी मारे गए हिंदुओं की लाशें मुगलों ने
उसमे फेककर चारों ओर चहारदीवारी उठा कर उसे घेर
दिया। आज भी कंदर्पकूप “गज शहीदा” के नाम से प्रसिद्ध
है,और जन्मभूमि के पूर्वी द्वार पर स्थित है।
शाही सेना ने जन्मभूमि का चबूतरा खोद डाला बहुत
दिनो तक वह चबूतरा गड्ढे के रूप मे वहाँ स्थित था ।
औरंगजेब के क्रूर अत्याचारो की मारी हिन्दू जनता अब
उस गड्ढे पर ही श्री रामनवमी के दिन भक्तिभाव से
अक्षत,पुष्प और जल चढाती रहती थी.
नबाब सहादत अली के समय 1763 ईस्वी में जन्मभूमि के रक्षार्थ
अमेठी के राजा गुरुदत्त सिंह और पिपरपुर के
राजकुमार सिंह के नेतृत्व मे बाबरी ढांचे पर पुनः पाँच
आक्रमण किये गये जिसमें हर बार हिन्दुओं की लाशें अयोध्या में
गिरती रहीं।
लखनऊ गजेटियर मे कर्नल हंट लिखता है की
“ लगातार हिंदुओं के हमले से ऊबकर नबाब ने हिंदुओं और
मुसलमानो को एक साथ नमाज पढ़ने और भजन करने
की इजाजत दे दी पर सच्चा मुसलमान होने के नाते उसने
काफिरों को जमीन नहीं सौंपी।
“लखनऊ गजेटियर पृष्ठ 62”
नासिरुद्दीन हैदर के समय मे मकरही के
राजा के नेतृत्व में जन्मभूमि को पुनः अपने रूप मे लाने के
लिए हिंदुओं के तीन आक्रमण हुये जिसमें बड़ी संख्या में हिन्दू मारे गये।
परन्तु तीसरे आक्रमण में डटकर
नबाबी सेना का सामना हुआ 8वें दिन हिंदुओं
की शक्ति क्षीण होने लगी ,जन्मभूमि के मैदान मे हिन्दुओं
और मुसलमानो की लाशों का ढेर लग गया । इस
संग्राम मे भीती,हंसवर,,मकरही,खजुरहट,दीयरा अमेठी के
राजा गुरुदत्त सिंह आदि सम्मलित थे। हारती हुई हिन्दू सेना के साथ वीर
चिमटाधारी साधुओं की सेना आ
मिली और इस युद्ध मे शाही सेना के चिथड़े उड गये और
उसे रौंदते हुए हिंदुओं ने जन्मभूमि पर कब्जा कर लिया।
मगर हर बार की तरह कुछ दिनो के बाद विशाल शाही सेना ने
पुनः जन्मभूमि पर अधिकार कर लिया और हजारों हिन्दुओं को मार
डाला गया। जन्मभूमि में हिन्दुओं का रक्त प्रवाहित होने लगा।
नावाब वाजिदअली शाह के समय के समय मे पुनः हिंदुओं ने जन्मभूमि के
उद्धारार्थ आक्रमण किया । फैजाबाद गजेटियर में कनिंघम ने लिखा
"इस संग्राम मे बहुत ही भयंकर खूनखराबा हुआ ।दो दिन
और रात होने वाले इस भयंकर युद्ध में सैकड़ों हिन्दुओं के मारे जाने के
बावजूद हिन्दुओं नें राम जन्मभूमि पर कब्जा कर लिया। क्रुद्ध हिंदुओं
की भीड़ ने कब्रें तोड़ फोड़ कर
बर्बाद कर डाली मस्जिदों को मिसमार करने लगे और पूरी ताकत से
मुसलमानों को मार-मार कर अयोध्या से खदेड़ना शुरू किया।मगर
हिन्दू भीड़ ने मुसलमान स्त्रियों और बच्चों को कोई
हानि नहीं पहुचाई।
अयोध्या मे प्रलय मचा हुआ था ।
इतिहासकार कनिंघम लिखता है की ये
अयोध्या का सबसे बड़ा हिन्दू मुस्लिम बलवा था।
हिंदुओं ने अपना सपना पूरा किया और
औरंगजेब द्वारा विध्वंस किए गए चबूतरे को फिर वापस
बनाया । चबूतरे पर तीन फीट ऊँची खस की टाट से एक
छोटा सा मंदिर बनवा लिया ॥जिसमे
पुनः रामलला की स्थापना की गयी।
कुछ जेहादी मुल्लाओं को ये बात स्वीकार नहीं हुई और कालांतर में
जन्मभूमि फिर हिन्दुओं के हाथों से निकल गयी।
सन 1857 की क्रांति मे बहादुर
शाह जफर के समय में बाबा रामचरण दास ने एक मौलवी आमिर अली के
साथ जन्मभूमि के उद्धार का प्रयास किया पर
18 मार्च सन 1858 को कुबेर टीला स्थित एक इमली के
पेड़ मे दोनों को एक
साथ अंग्रेज़ो ने फांसी पर लटका दिया ।
जब अंग्रेज़ो ने ये
देखा कि ये पेड़ भी देशभक्तों एवं रामभक्तों के लिए एक
स्मारक के रूप मे विकसित हो रहा है तब उन्होने इस पेड़
को कटवा कर इस आखिरी निशानी को भी मिटा दिया...
इस प्रकार अंग्रेज़ो की कुटिल नीति के कारण रामजन्मभूमि के उद्धार
का यह
एकमात्र प्रयास विफल हो गया ...
अन्तिम बलिदान ...
३० अक्टूबर १९९० को हजारों रामभक्तों ने वोट-बैंक के लालची मुलायम
सिंह यादव के द्वारा खड़ी की गईं
अनेक बाधाओं को पार कर अयोध्या में प्रवेश किया और
विवादित ढांचे के ऊपर भगवा ध्वज फहरा दिया।
लेकिन २ नवम्बर १९९०
को मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने कारसेवकों पर
गोली चलाने का आदेश दिया, जिसमें सैकड़ों
रामभक्तों ने अपने जीवन की आहुतियां दीं। सरकार ने
मृतकों की असली संख्या छिपायी परन्तु प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार
सरयू तट रामभक्तों की लाशों से पट गया था।
४ अप्रैल १९९१ को कारसेवकों के हत्यारे,
उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने
इस्तीफा दिया।
लाखों राम भक्त ६ दिसम्बर
को कारसेवा हेतु अयोध्या पहुंचे और राम जन्मस्थान पर बाबर
के सेनापति द्वार बनाए गए अपमान के प्रतीक
मस्जिदनुमा ढांचे को ध्वस्त कर दिया।
परन्तु हिन्दू समाज के अन्दर व्याप्त घोर संगठनहीनता एवं नपुंसकता के
कारण आज भी हिन्दुओं के सबसे बड़े आराध्य भगवान श्रीराम एक फटे
हुए तम्बू में विराजमान हैं।
जिस जन्मभूमि के उद्धार के लिए हमारे पूर्वजों ने अपना रक्त
पानी की तरह बहाया। आज वही हिन्दू बेशर्मी से इसे "एक विवादित
स्थल" कहता है।
सदियों से हिन्दुओं के साथ रहने वाले मुसलमानों ने आज भी जन्मभूमि पर
अपना दावा नहीं छोड़ा है। वो यहाँ किसी भी हाल में मन्दिर नहीं बनने
देना चाहते हैं ताकि हिन्दू हमेशा कुढ़ता रहे और उन्हें
नीचा दिखाया जा सके।
जिस कौम ने अपने ही भाईयों की भावना को नहीं समझा वो सोचते हैं
हिन्दू उनकी भावनाओं को समझे। आज तक किसी भी मुस्लिम संगठन ने
जन्मभूमि के उद्धार के लिए आवाज नहीं उठायी, प्रदर्शन
नहीं किया और सरकार पर दबाव नहीं बनाया आज भी वे बाबरी-विध्वंस
की तारीख 6 दिसम्बर को काला दिन मानते हैं। और मूर्ख हिन्दू
समझता है कि राम जन्मभूमि राजनीतिज्ञों और मुकदमों के कारण
उलझा हुआ है।
ये लेख पढ़कर जिन हिन्दुओं को शर्म नहीं आयी वो कृपया अपने घरों में
राम का नाम ना लें...अपने रिश्तेदारों से कह दें कि उनके मरने के बाद
कोई "राम नाम" का नारा भी नहीं लगाएं।
इस्लामिक जेहाद का शिकार बने हिन्दू मन्दिर
यह भी एक ऐतिहासिक सत्य है कि इस्लाम के जन्म के पश्चात इसका विस्तार बौद्धिक आधार पर न होकर युद्ध में विजय के माध्यम से हुआ। इस्लाम के अनुयायी योद्धा अपने स्थान से चले, एक के बाद दूसरे क्षेत्रों को विजित करते रहे और उन्हें इस्लाम के अन्तर्गत लाते रहे। भारत में भी इस्लाम का प्रवेश आक्रमणकारी के रूप में हुआ।
इस्लाम के अनुयायी सभी आक्रमणकारियों ने हिन्दुस्थान में हिन्दू सेनाओं को हराया, सम्पत्ति की लूटपाट की, समाज का कत्लेआम किया, साथ ही साथ समाज को मानसिक आघात पहुंचाने के लिए उन्होंने देव-स्थानों को अपना निशाना बनाया, उन्हें तोड़ा। देवी-देवताओं की मूर्तियों को खण्डित किया। कुछ स्थान पूरी तरह समाप्त कर दिए गए। हजारों स्थानों पर मस्जिदें बना दी गई, जिनका इतिहास खोजना भी कठिन हो गया है।
लेकिन अयोध्या, मथुरा, काशी और सोमनाथ मन्दिरों को तोड़ दिए जाने के बावजूद इनके इतिहास, इन मन्दिरों की गौरवगाथा को अपने दिल और दिमाग से हिन्दू समाज कभी हटा नहीं सका। अयोध्या में राम जन्मभूमि मन्दिर, त्रेता का ठाकुर मन्दिर व स्वर्गद्वार मन्दिर भी मुस्लिम शासकों ने तोड़े थे। बाद के दोनों मन्दिरों को तो अयोध्या का हिन्दू समाज और रामानन्द सम्प्रदाय शायद भूल गया परन्तु श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर तोड़े जाने को हिन्दू समाज कभी पचा नहीं पाया।
श्रीराम जन्मभूमि को प्राप्त करने के लिए सतत संघर्ष
अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर बना हुआ मन्दिर 1528 ई0 में आक्रमणकारी बाबर के आदेश पर उसके सेनापति मीरबांकी द्वारा तोड़ा गया। इस मन्दिर को प्राप्त करने के लिए हिन्दू समाज सदैव संघर्ष करता रहा और जीवन देता रहा। मीरबांकी द्वारा मंदिर तोड़े जाते समय भाटी नरेश महताब सिंह, हंसवर नरेश रणविजय सिंह, हंसवर के राजगुरू पं0 देवीदीन पाण्डेय ने 15 दिनों तक संघर्ष किया। घमासान युद्ध हुआ। बाबर के काल में ही इस स्थान को वापस प्राप्त करने के लिए 4 बार युद्ध हुए।
हुमायुँ के शासनकाल में रानी जयराज कुँवारी एवं स्वामी महेश्वरानन्द जी के नेतृत्व में युद्ध हुए। 10 युद्धों का वर्णन मिलता है। अकबर के काल में 20 बार युद्ध हुये। अकबर ने श्रीराम जन्मभूमि परिसर के अन्दर तीन गुम्बदों वाले तथाकथित मस्जिद के ढांचे के सामने एक चबूतरा बनाकर तथा उस पर प्रभु राम का मन्दिर बनवाकर बेरोकटोक पूजा करने की अनुमति दे दी।
यही स्थान राम चबूतरे के नाम से विख्यात था। इस स्थान पर भगवान की पूजा सदैव चलती रही। 06 दिसम्बर, 1992 के बाद ही इस स्थान का अस्तित्व समाप्त हुआ। औरंगजेब के काल में भी 30 युद्ध हुये। बाबा वैष्णवदास, गोपाल सिंह, ठाकुर जगदम्बा सिंह आदि ने डटकर लोहा लिया।
अवध के नवाब सआदत अली के काल में हिन्दुओं ने 5 बार आक्रमण किये। नवाब ने परेशान होकर हिन्दुओं को पूजा की अनुमति दे दी। नवाब वाजिद अली शाह के काल में हिन्दुओं ने 4 बार लड़ाई लड़ी। बाबा उद्धवदास और भाटी नरेश ने ये युद्ध लड़े। 76 लड़ाइयों का वर्णन अयोध्या की गलियों में सुनने को मिलता है। निश्चित ही इन लड़ाइयों में लाखों हिन्दू वीरों ने अपनी जान दी होगी और लाखों विधर्मियों की जान ली भी होगी। हिन्दू समाज इस स्थान को प्राप्त तो नहीं कर सका परन्तु मुस्लिमों को भी चैन से नहीं बैठने दिया।
अवध पर अंग्रेजों का अधिकार हो जाने के पश्चात अंग्रेजों ने तीन गुम्बदों वाले ढांचे और राम चबूतरा के बीच एक दीवार खड़ी करा दी। इस कारण हिन्दुओं का पूजा अर्चना के लिए केवल बाहर तक रहना लाचारी हो गई। परन्तु पूजा अर्चना बन्द नही हुई। हिन्दू मुस्लिम के बीच कटुता बढ़ गई। दंगे होने लगे।
बहादुर शाह जफर को अंग्रेजों के विरुद्ध जब प्रजा ने नेतृत्व सौंप दिया उस समय मुस्लिम नेता अमीर अली ने यह स्थल हिन्दुओं को वापस सौंप देने का निर्णय कर लिया। संयोगवश 1857 ई0 में अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष असफल हो गया। समय का लाभ उठाकर अंग्रेजों ने अमीर अली और बाबा रामचरण दास को एक इमली के पेड़ से लटका कर सार्वजनिक फांसी दे दी और यह स्थान हिन्दुओं को प्राप्त न हो सका।
सन् 1885 ई0 में महंत रघुवरदास ने फैजाबाद की अदालत में एक दीवानी मुकदमा दायर किया जिसमें राम चबूतरे के ऊपर बने कच्चे झोपड़े को पक्का बनाने की अनुमति मांगी, मुकदमा खारिज हो गया। ब्रिटिश न्यायाधीश कर्नल चैमियर की अदालत में अपील की गई। कर्नल चैमियर ने स्थान का स्वयं निरीक्षण किया और 1886 ई0 में अपने निर्णय में लिखा कि ''यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मस्जिद का निर्माण हिन्दुओं के एक पवित्र स्थल पर बने भवन को तोड़कर किया गया है। चूंकि यह घटना 356 वर्ष पुरानी है इसलिए इसमें कुछ करना उचित नही होगा।''
वर्ष 1934 में अयोध्या में मुस्लिमों द्वारा एक गऊ काट दिए जाने के कारण हिन्दू समाज आक्रोशित हो गया, अनेक गऊ हत्यारे मार दिए गए। इतना ही नहीं अपितु उत्तेजित हिन्दू समाज तथाकथित बाबरी मस्जिद पर भी चढ़ बैठा, उसके तीनों गुम्बदों को अपार क्षति पहुंचाई। इस स्थान पर हिन्दू पूरी तरह कब्जा तो नहीं कर पाए परन्तु इतना अवश्य हुआ कि इस घटना के बाद श्रीराम जन्मभूमि परिसर में प्रवेश करने की हिम्मत मुस्लिम समाज कभी जुटा नहीं सका।
तोड़े गए तीनों गुम्बदों की मरम्मत अंग्रेज सरकार ने कराई और इसमें हुआ खर्च अयोध्या के हिन्दू समाज से टैक्स के रूप में वसूला गया। 1934 से यह स्थान पूरी तरह से हिन्दू समाज के कब्जे में है। बाहर राम चबूतरे पर हिन्दू समाज मूर्तियों की पूजा करता था और गुम्बदों के भीतर उस पवित्र भूमि पर पुष्प चढ़ाता था और मस्तक नवाता था।
स्वातंत्र्य प्राप्ति के पश्चात्
अयोध्या स्थित हनुमान गढ़ी के नागा बाबा अभिरामदास तथा परमहंस रामचन्द्रदास जी महाराज के नेतृत्व में अयोध्या के समाज में अपने संघर्ष को पुन: प्रारम्भ कर दिया। 23 दिसम्बर, 1949 को ब्रह्ममुहूर्त में ढांचे के मध्य गुम्बद के नीचे तेज प्रकाश के साथ भगवान रामलला प्रकट हो गये। आनन-फानन में हजारों लोग जन्मभूमि पर एकत्र हो गए। भगवान का भजन-पूजन प्रारम्भ हो गया। साधु सन्तों ने अखण्ड कीर्तन प्रारम्भ कर दिया जो 06 दिसम्बर, 1992 को ढांचा गिरने तक अनवरत जारी रहा। वर्ष 1949 में पं0 गोविन्द वल्लभ पन्त उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री, श्री के. के. नैय्यर फैजाबाद के जिलाधीश तथा ठाकुर गुरूदत्त सिंह अवैतनिक सिटी मजिस्ट्रेट थे।
दिनांक 29 दिसम्बर, 1949 को सिटी मजिस्ट्रेट ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 145 के अन्तर्गत ढांचे के भीतरी परिसर को कुर्क करके अयोध्या नगर पालिका के अध्यक्ष बाबू प्रियदत्तराम को उसके अन्दर चल रही पूजा अर्चना के संचालन के लिए रिसीवर नियुक्त कर दिया और रिसीवर का कर्तव्य निर्धारित किया गया कि वे ढांचे के मध्य गुम्बद के नीचे विराजित भगवान श्रीरामलला के विग्रहों की पूजा व भोग की व्यवस्था करेंगे। मुख्य बड़े द्वार को सींखचों से बन्द करके ताला डाल दिया गया।
कुछ दिनों बाद कुर्की का आदेश भी वापस ले लिया गया परन्तु मुख्य द्वार पर ताला फिर भी लगा रहा। बगल में लगे छोटे द्वार से भगवान की पूजा अर्चना भोग के लिए पुजारी जाते-आते थे। जनता सींखचों के बाहर से रामलला के दर्शन करती थी। 01 फरवरी, 1986 को जिला न्यायाधीश फैजाबाद के आदेश से ताला खुल जाने तक सींखचों के बाहर से भगवान के दर्शन, पूजन का यह क्रम निर्बाध चलता रहा।
आन्दोलन का प्रारम्भ
उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद शहर से अनेक बार विधायक चुने गए तथा श्री चन्द्रभानु गुप्त के मुख्यमंत्रित्व काल में स्वास्थ्य मंत्री रहे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता स्वर्गीय श्री दाऊदयाल जी खन्ना के मस्तिष्क में श्रीराम जन्मभूमि-अयोध्या, श्रीकृष्ण जन्मभूमि-मथुरा तथा काशी विश्वनाथ मन्दिर को मुक्त कराने का विचार कौंधा। उन्होंने इन मन्दिरों की मुक्ति को सर्वप्रथम काशीपुर (नैनीताल-उत्तरांचल) में सम्पन्न हिन्दू सम्मेलन में अपने भाषण का विषय बनाया।
तत्पश्चात अप्रैल, 1983 में मुजफ्फरनगर (उ0प्र0) में सम्पन्न हुए हिन्दू सम्मेलन में उपर्युक्त तीनों मन्दिरों की मुक्ति का प्रस्ताव स्वयं प्रस्तुत किया। इन सम्मेलनों का अयोजन हिन्दू जागरण मंच की ओर से किया गया था। श्री दाऊदयाल जी खन्ना ने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी जी को पत्र लिखकर तीनों धर्मस्थलों के सम्बन्ध में शीघ्र समाधान खोजने का निवेदन भी किया।
सन्तों ने आन्दोलन अंगीकार किया
अप्रैल, 1984 में दिल्ली स्थित विज्ञान भवन में विश्व हिन्दू परिषद की ओर से धर्मसंसद का प्रथम आयोजन किया गया था। धर्मसंसद में 575 धर्माचार्य उपस्थित थे। श्री दाऊदयाल जी खन्ना ने तीनों धर्मस्थानों की मुक्ति का अपना प्रस्ताव पुन: रखा। प्रस्ताव एक मत से स्वीकार हुआ। श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति की स्थापना हुई, गोरक्षपीठाधीश्वर पूज्य महंत श्री अवेद्यनाथ जी महाराज इस समिति के अध्यक्ष और स्वर्गीय श्री दाऊदयाल जी खन्ना महामंत्री तथा श्री ओंकार जी भावे, श्री महेश नारायण सिंह तथा श्री दिनेश त्यागी (वर्तमान में हिन्दू महासभा के पदाधिकारी) मंत्री घोषित किए गए। श्रीराम जन्मभूमि पर लगे ताले को खुलवाने के लिए जन-जागरण करने का निर्णय हुआ।
सीतामढ़ी (बिहार) से 25 सितम्बर, 1984 को प्रारम्भ हुई श्रीरामजानकी रथयात्रा सड़क मार्ग से ग्रामों, कस्बों में जन-जागरण करती हुई 06 अक्टूबर को अयोध्या पहुंची। 07 अक्टूबर को अयोध्या में सरयू तट पर हजारों सन्तों व भक्तों ने सरयू जल हाथ में लेकर जन्मभूमि की मुक्ति का संकल्प लिया तथा ''जन्मभूमि का ताला खोलो'' का उद्घोष करते हुए श्रीरामजानकी रथ ने लखनऊ की ओर कूच किया। लखनऊ में धर्मसभा के पश्चात रथ दिल्ली की ओर चला। दुर्भाग्य से प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी की निर्मम हत्या कर दिए जाने के कारण रथयात्रा के सभी कार्यक्रम स्थगित कर दिए गए।
रथयात्राएं पुन: प्रारम्भ
विजयादशमी 1985 से 06 श्रीरामजानकी रथयात्राएं केवल उत्तर प्रदेश में पुन: प्रारम्भ हुई। अक्टूबर, 1985 में उडुप्पी (कर्नाटक) में धर्मसंसद का द्वितीय अधिवेशन हुआ, 850 सन्तों ने भाग लिया। महाशिवरात्रि 1986 तक ताला न खोले जाने पर सत्याग्रह करने का प्रस्ताव पारित हुआ। पूज्य महंत परमहंस श्री रामचन्द्र दास जी महाराज ने ताला न खोलने पर आत्मदाह की घोषणा की। रथों ने उत्तर प्रदेश का मंथन कर डाला, अद्भुत अद्भुत जन-जागरण हुआ।
ताला खुला
एक अधिवक्ता श्री उमेशचन्द्र पाण्डेय के प्रार्थना पत्र पर फैजाबाद के तत्कालीन जिला न्यायाधीश श्री के. एम. पाण्डेय ने सभी तथ्यों का संज्ञान लेते हुए 01 फरवरी, 1986 को श्रीराम जन्मभूमि पर लगा ताला खोलने का आदेश दे दिया। उसी दिन सायंकाल ताला तोड़ दिया गया। भक्तगण ढांचे के मध्य गुम्बद के नीचे स्थित रामलला के दर्शन करने के लिए प्रवेश करने लगे। मुस्लिम पक्ष ने निर्णय के विरुद्ध अपील की, ताला खोले जाने के आदेश के विरुद्ध मुस्लिमों द्वारा की गईं सभी अपीलें उच्च न्यायालय ने अक्टूबर, 1989 में निरस्त कर दी।
भव्य मन्दिर निर्माण की प्रक्रिया प्रारम्भ
तत्पश्चात् श्रीराम जन्मभूमि पर खड़े तीन गुम्बदों वाले पुराने जर्जर ढांचे के स्थान पर भव्य मन्दिर बनाने का चिन्तन प्रारम्भ हुआ। कर्णावती (अहमदाबाद) निवासी, मन्दिर वास्तुविद् (Temple Architect) श्री चन्द्रकान्त भाई सोमपुरा की खोज हुई, मन्दिर के अनेक प्रारूप बने, एक प्रारूप स्वीकार हुआ।
मन्दिर का यह प्रारूप 270 फीट लम्बा, 135 फीट चौड़ा तथा 125 फीट ऊँचे शिखर वाला है, मन्दिर दो मंजिला है, पहली मंजिल पर रामलला तथा दूसरी मंजिल पर राम दरबार गर्भगृह में रहेंगे। राजस्थान के भरतपुर जनपद के बंसीपहाड़पुर क्षेत्र का हल्के गुलाबी रंग का बलुआ पत्थर मन्दिर निर्माण के लिए चयन किया गया।
अयोध्या में प्रस्तावित भव्य मंदिर निर्माण में लोहे का प्रयोग नहीं होगा। प्रत्येक मंजिल में 106 खम्भे हैं। प्रथम तल के खम्भों की ऊँचाई 16.5 फीट है तथा दूसरी मंजिल के खम्भों की ऊँचाई 14.5 फीट है। प्रत्येक मंजिल में 185 बीम लगेंगे, यह भी पत्थर के ही होंगे। बीम की अधिकतम लम्बाई 16 फीट है। मन्दिर में सफेद संगमरमर की चौखट में लकड़ी के दरवाजे लगेंगे।
मन्दिर निर्माण के लिए धन संग्रह
मन्दिर निर्माण के लिए आवश्यक धन संग्रह करने के उद्देश्य से जन-जन तक पहुँचने की अभूतपूर्व योजना बनी। योजना के अनुसार छोटे से छोटे ग्राम अथवा नगर के एक मोहल्ले से एक शिला का सामूहिक पूजन और पूजन करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा मन्दिर निर्माण के लिए सवा रूपए की भेंट तथा बदले में श्रीराम जन्मभूमि का एक छोटा सा चित्र प्रत्येक दानदाता को कूपन रूप में दिया गया। 6 करोड़ व्यक्तियों से सम्पर्क हुआ। एकत्रित धन ''श्रीराम जन्मभूमि न्यास'' के नाम से बैंक में जमा किया गया।
देश के 2.75 लाख ग्रामों तथा नगरों के मोहल्लों से पूजित रामशिलाएं अयोध्या पहुंची। विदेशों से एक लाख रूपए का चेक पूजित शिलाओं के साथ मन्दिर निर्माण के लिए प्राप्त हुआ था, परन्तु उस दान को प्राप्त करने के लिए तत्कालीन भारत सरकार की अनुमति नहीं मिली। परिणामत: धनराशि दान-दाताओं को वापस लौटा दी गई।
शिलान्यास
मन्दिर के प्रारूप एवं रामलला विराजमान के वर्तमान स्थल का तालमेल करते हुए भावी मन्दिर के सिंहद्वार के बाएं स्तम्भ का स्थान शिलान्यास के लिए चयनित हुआ। केन्द्र तथा उत्तर प्रदेश सरकार दोनों की सहमति से चयनित स्थल पर 10 नवम्बर, 1989 को शिलान्यास का पूजन कार्यक्रम विश्व हिन्दू परिषद-बिहार के तत्कालीन प्रान्त संगठन मंत्री श्री कामेश्वर चौपाल के हाथों सम्पन्न हुआ।
प्रथम कारसेवा की घोषणा
23, 24 जून, 1990 को हरिद्वार में मार्गदर्शक मण्डल बैठक में 30 अक्टूबर, 1990 को अयोध्या में मन्दिर निर्माण के लिए कारसेवा प्रारम्भ करने का निर्णय हुआ। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री मुलायम सिंह यादव ने गर्वोक्ति कर दी कि अयोध्या में ''परिन्दा भी पर नहीं मार सकेगा''। कारसेवकों के जत्थे देशभर से अयोध्या के लिए चल पड़े। उत्तर प्रदेश में प्रवेश करते ही उन्हें पकड़ा जाने लगा। हजारों की संख्या में कारसेवक पकड़े गए।
अयोध्या आने के सभी रास्ते बन्द कर दिए गए, सरयू पुल पर कंटीले तार फैला दिए गए, सरयू नदी में नावें उलट दी गईं। अयोध्या की पुलिस व्यवस्था को देखकर पत्रकार भी बोलने लगे कि यदि 30 अक्टूबर को हैलीकाप्टर से भी कोई फावड़ा ढांचे पर गिरा तो हम उसे कारसेवा मान लेंगे। इतनी घेराबन्दी के बावजूद हजारों कारसेवक अयोध्या में प्रवेश कर गए।
भूखे, प्यासे, खेतों-झाड़ियों में 5-6 दिन तक छिपे रहे। अयोध्या में सैंकड़ों मन्दिरों और परिवारों ने कारसेवकों को अपने घर में आश्रय दिया। वीतराग सन्त पूज्य वामदेव जी महाराज व अन्य अनेक सन्त, स्वयं श्री अशोक जी सिंहल, श्री श्रीशचन्द्र जी दीक्षित सारी बाधाओं के रहते हुए भी अयोध्या में प्रवेश पा गए। 30 अक्टूबर देवोत्थान एकादशी को निर्धारित समय पर कारसेवक जन्मभूमि की ओर चल पड़े। कहीं से कोई पुलिस के कब्जे से बस को लेकर सारे बैरियर तोड़ता हुआ जन्मभूमि तक पहुंच गया। कारसेवक ढांचे पर चढ़ गए, गुम्बदों पर झण्डा गाड़ दिया।
01 नवम्बर, 1990 को श्री मणिरामदास छावनी के चारधाम मन्दिर प्रांगण में आयोजित सभा में 02 नवम्बर को पुन: कारसेवा के लिए प्रस्थान करने की घोषणा हुई। 30 अक्टूबर की घटना से शासन अपमानित अनुभव कर रहा था। अपमान से पीड़ित शासन ने 02 नवम्बर, 1990 को दिगम्बर अखाड़ा से हनुमानगढ़ी की ओर जाने वाली संकरी गली में कारसेवकों पर गोली चलाकर नरसंहार रचा। केन्द्र में श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार का पतन हो गया। कारसेवक भगवान के दर्शन करके ही अयोध्या से लौटे। 40 दिन तक अयोध्या में सत्याग्रह चला।
कारसेवकों की अस्थियों के कलश सारे देश में घूमे। समाज ने श्रद्धांजलि अर्पित की। जनवरी, 1991 में प्रयाग में माघ मेला के अवसर पर हुतात्मा कारसेवकों की अस्थियों का विसर्जन संगम में सन्तों के हाथों हुआ। 04 अप्रैल, 1991 को दिल्ली के बोट क्लब पर रैली का आयोजन हुआ, 25 लाख लोग भारत के कोने-कोने से दिल्ली पहुंचे। स्वतंत्रता के पश्चात यह विशालतम रैली होने के कारण ऐतिहासिक बन गई। इसके बाद तो बोट क्लब पर सभाओं के आयोजन पर ही प्रतिबन्ध लग गया। रैली में सन्तों के भाषणों के मध्य ही समाचार आया कि उत्तर प्रदेश में श्री मुलायम सिंह यादव ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। समाज को स्वाभाविक प्रसन्नता हुई।
वार्ता के दौर
स्वर्गीय श्री राजीव गांधी जी के प्रधानमंत्रित्व काल में गृहमंत्री श्री बूटा सिंह जी हिन्दू व मुस्लिम प्रतिनिधियों के बीच बातचीत कराया करते थे। एक अवसर पर मुस्लिम प्रतिनिधियों ने पूज्य सन्तों से पूछा कि क्या गारंटी है कि यदि अयोध्या मथुरा, काशी के धर्मस्थान आपको दे दिए जाएं तो आप किसी चौथे की मांग नहीं करेंगे? सन्तों की ओर से इस प्रश्न का उत्तर दिया जाता, इसके पूर्व ही जनाब सैयद शाहबुद्दीन अपने प्रतिनिधियों पर बिगड़ कर बोलने लगे कि आप कौन होते हैं? इतने उदार बनकर इन स्थानों को सौंपने वाले।
श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में आन्ध्र भवन में एक बार स्वर्गीय अलीमियां नदवी (लखनऊ) के नेतृत्व में मुस्लिम समाज के धार्मिक, सामाजिक नेता तथा पूज्य सन्त महापुरुष आमने-सामने बैठे थे, शुक्रवार का दिन था। जब दोपहर की नमाज का समय आया तो मुस्लिम पक्ष के लोग नमाज पढ़ने चले गए। नमाज के बाद लौटने पर पूज्य स्वामी श्री सत्यमित्रानन्द जी महाराज ने खड़े होकर अपना आंचल फैलाकर कहा कि नमाज के बाद ज़कात करने का विधान है। मैं आपसे श्रीराम जन्मभूमि की भीख मांगता हूँ। मुस्लिम प्रतिनिधियों का उत्तर था कि यह ''मिठाई का डिब्बा'' नहीं है जो उठाकर दे दें।
एक बार जनाब सैयद शाहबुद्दीन ने स्वयं कहा कि यदि यह सिद्ध हो जाए कि किसी मन्दिर को तोड़कर यह मस्जिद बनाई गई है, तो मुस्लिम समाज इस स्थान को छोड़ देगा। इसके उत्तर में जब उन्हें कहा गया कि काशी विश्वनाथ मन्दिर में प्रमाण स्पष्ट दिख रहा है, आप वह स्थान हिन्दू समाज को वापस दे दीजिए तो शाहबुद्दीन साहब बात पलट गए।
जब श्री चन्द्रशेखर प्रधानमंत्री बने, उन्होंने भी वार्तालाप कराने का प्रयास किया। उनकी पहल पर 01 दिसम्बर, 1990 को विश्व हिन्दू परिषद एवं बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के प्रतिनिधियों ने सरकारी प्रतिनिधियों की उपस्थिति में बातचीत प्रारम्भ की। बातचीत का मुख्य विचार बिन्दु था कि यदि यह सिद्ध हो जाए कि ''श्रीराम जन्मभूमि पर मन्दिर तोड़ कर विवादित ढांचा बनाया गया था'' तो मुसलमान उस पर अपना दावा छोड़ देंगे। 04 दिसम्बर, 1990 की बैठक में निर्णय हुआ कि दोनों पक्ष अपने साक्ष्य लिखित रूप में 22 दिसम्बर, 1990 तक गृह राज्य मंत्री के पास भेज देंगे।
गृह राज्य मंत्री 25 दिसम्बर, 1990 तक उन साक्ष्यों का सम्बंधित पक्षों में आदान-प्रदान कर देंगे। दोनों पक्ष साक्ष्यों की समीक्षा करके अपनी टिप्पणी 06 जनवरी, 1991 तक गृह राज्य मंत्री को देंगे। गृह राज्य मंत्री कार्यालय इन टिप्पणियों के आधार पर सहमति और असहमति के बिन्दु तैयार करके 09 जनवरी, 1991 तक दोनों पक्षों को भेज देगा। 10 जनवरी, 1991 को पुन: मिलेंगे। गुजरात भवन में दोनों पक्षों ने चर्चा की। अनुभव किया गया कि चार प्रकार के विशेषज्ञ (ऐतिहासिक, पुरातात्विक, राजस्व एवं कानून सम्बन्धी) उपलब्ध साक्ष्यों का विश्लेषण करें। यह भी तय हुआ कि विशेषज्ञों की सूची 17 जनवरी, 1991 तक सरकार को दी जाएगी।
विशेषज्ञों की बैठक 24 जनवरी, 1991 से प्रारम्भ होगी। विशेषज्ञों के निष्कर्ष 05 फरवरी, 1991 को दोनों पक्षों के समक्ष विचार के लिए रखे जाएंगे। यह भी निश्चित हुआ था कि मुस्लिम पक्ष भगवान राम की ऐतिहासिकता और अयोध्या की पहचान पर कोई प्रश्न खड़ा नहीं करेगा। अत: इन विषयों पर कोई वार्ता नहीं होगी। 24 जनवरी, 1991 को विशेषज्ञ दो टोलियों में साक्ष्यों का अध्ययन करने के लिए बैठे।
मुस्लिम पक्ष की ओर से इतिहास और पुरातत्व के विशेषज्ञ आए थे। उन्होंने प्रारम्भ में ही सरकार को पत्र लिखकर दे दिया कि तथ्यों का अध्ययन करने के लिए उन्हें 6 सप्ताह का समय चाहिए जबकि हिन्दू पक्ष के विशेषज्ञ कहते रहे कि 05 फरवरी, 1991 के पूर्व कार्य सम्पन्न किया जा सकता है।
मुस्लिम पक्ष के राजस्व एवं कानूनी विशेषज्ञ उपस्थित ही नहीं हुए। 25 जनवरी, 1991 को फिर बैठक हुई। हिन्दू पक्ष के विशेषज्ञ पूर्व निर्धारित समय प्रात: 11.00 बजे गुजरात भवन पहुंच गए। मुस्लिम पक्ष का कोई भी विशेषज्ञ दोपहर 12.45 बजे तक बैठक स्थल, गुजरात भवन नहीं पहुंचा और न ही अपने न पहुंचने की सूचना दी, इससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि मुस्लिम पक्ष बातचीत से भाग रहा है। मुस्लिम पक्ष की अनुपस्थिति को अपमानजनक समझा गया और बातचीत यहीं समाप्त हो गई।
मुस्लिम पक्ष के साथ बातचीत करने में एक अनुभव यह आया कि वे हर वार्तालाप में अपना पैंतरा बदलते थे। वार्तालाप से समाधान निकालने की चर्चा आज जब सुनी जाती है तो मन में प्रश्न उठता है कि अब वार्तालाप कहाँ से शुरू होगा ?
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा अधिग्रहण
10 अक्टूबर, 1991 को उत्तर प्रदेश सरकार के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री कल्याण सिंह जी ने विवादित ढांचे को छोड़कर उसके चारों ओर का 2.77 एकड़ भूखण्ड तीर्थ यात्रियों के लिए सुविधाएं विकसित करने के उद्देश्य से अधिग्रहीत कर लिया।
मुस्लिम पक्ष की ओर से अधिग्रहण को उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई। उच्च न्यायालय ने 25 अक्टूबर, 1991 को अन्तरिम आदेश दिया की अधिग्रहीत भूमि पर उत्तर प्रदेश सरकार कब्जा कर सकती है, परन्तु दायर याचिकाओं का अन्तिम निपटारा होने तक कोई पक्का निर्माण नहीं करा सकेगी। याचिकाओं पर अन्तिम सुनवाई 4 नवम्बर, 1992 को पूरी करके निर्णय सुरक्षित रख लिया गया।
अधिग्रहीत क्षेत्र का समतलीकरण
अधिग्रहीत 2.77 एकड़ भूखण्ड का समतलीकरण अप्रैल, 1992 में उत्तर प्रदेश सरकार के पर्यटन विभाग ने प्रारम्भ करा दिया। साथ-साथ ही जन्मभूमि को राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 8 (लखनऊ-फैजाबाद-अयोध्या-गोरखपुर राजमार्ग) से जोड़ने के लिए 80 फीट चौड़ी सड़क के निर्माण का काम भी लोक निर्माण विभाग द्वारा प्रारम्भ कर दिया गया। समतलीकरण के दौरान 18 जून, 1992 को ढांचे के दक्षिणी पूर्वी कोने पर लगभग 12 फीट नीचे नक्काशीदार पत्थरों का जखीरा अचानक निकल आया। जिसमें अनेक अलंकृत तथा तरासे हुये किन्तु खण्डित पत्थर थे।
आज वे सभी पुरावशेष अयोध्या संग्रहालय में संरक्षित हैं। पुरातत्ववेत्ताओं ने 2 व 3 जुलाई, 1992 को स्थान का निरीक्षण किया और वे इस निश्चय पर पहुंचे कि सभी अवशेष 12वीं शताब्दी में उत्तर भारत में प्रचलित शैली के मंदिर के हैं। प्राप्त पुरावशेषों में मुख्यत: शिखर आमलक, जाल अलंकरण, शीर्ष, छज्जा, जगती का तला थर, द्वारशाखा, शिव-पार्वती हैं। जिस स्थान पर विवादित ढांचा खड़ा था वहाँ पक्की इटों की एक विशाल दीवार भी मिली।
ढांचे की पूर्णाहुति
30 अक्टूबर, 1992 को दिल्ली में आयोजित पंचम धर्मसंसद में पुन: कारसेवा प्रारम्भ करने के लिए 6 दिसम्बर की तिथि घोषित कर दी गई। नवम्बर के अन्तिम सप्ताह से ही अयोध्या में कारसेवकों का पहुँचना प्रारम्भ हो गया। अपेक्षा थी कि उच्च न्यायालय 2.77 एकड़ अधिग्रहीत भूखण्ड के विरुद्ध दायर की गई याचिकाओं पर अपना सुरक्षित रखा गया निर्णय 6 दिसम्बर के पूर्व सुना देगा।
उत्तर प्रदेश सरकार ने 25 नवम्बर को सर्वोच्च न्यायालय से प्रार्थना भी की थी कि सर्वोच्च न्यायालय स्वयं आदेश जारी कर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ से सुरक्षित रखा गया निर्णय शीघ्र सुना देने का अनुरोध करे, सर्वोच्च न्यायालय ने उचित निर्देश दिया भी परन्तु उच्च न्यायालय ने निर्णय सुनाने की तिथि 11 दिसम्बर घोषित कर दी।
उत्तर प्रदेश सरकार चाहती थी कि निर्णय का केवल क्रियान्वयन वाला भाग ही 6 दिसम्बर के पूर्व सुना दिया जाए ताकि अनिश्चितता का अन्त हो किन्तु यह दलील भी बेकार गई। उच्च न्यायालय का निर्णय 11 दिसम्बर को आया लेकिन तब तक हिन्दू समाज के आक्रोश का विस्फोट हो चुका था। 1528 ई0 में भारत के मस्तक पर लगा कलंक का प्रतीक तीन गुम्बदों वाला ढांचा 06 दिसम्बर, 1992 का शाम ढलते-ढलते स्वयं अतीत का हिस्सा बन चुका था।
शिलालेख की प्राप्ति
ढांचे की दीवारों पर जब हमला हुआ तो जर्जर हो चुकी पुरानी दीवारें भरभराकर गिर पड़ीं। दीवारें खोखली थीं। खोखली दीवारें मलबे से भरी थीं, दीवारों से निकलने वाले नक्काशीदार पत्थरों को कारसेवक उठा-उठाकर मंच के नीचे लाकर रखने लगे। इसी बीच एक शिलालेख वहाँ लाकर रखा गया।
श्रीमती सुधा मलैया (भोपाल) की बहादुरी, पुरातत्ववेत्ता डॉ0 स्वराज प्रकाश गुप्ता की सूझबूझ और वरिष्ठ पत्रकार श्री रामशंकर अग्निहोत्री व फैजाबाद निवासी युवा व्यवसायी श्री अशोक चटर्जी की कुशलता के परिणामस्वरूप वह शिलापट समाज के सामने आ गया। कालान्तर में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर भारत सरकार के विशेषज्ञों द्वारा इस शिलालेख का फोटो व छाप ली गई, जो उच्च न्यायालय लखनऊ पीठ में सुरक्षित है।
यह शिलालेख विशेषज्ञों द्वारा पढ़ लिया गया है और यह स्थापित हो गया है कि 5 फीट लम्बे तथा 2.25 फीट चौड़े इस आयताकार शिलापट पर 20 पंक्तियों में 30 श्लोक उत्कीर्ण हैं, इनकी भाषा संस्कृत तथा लिपि नागरी है, जो 12वीं शताब्दी के गहड़वाल राजवंश के अभिलेखों में पाई जाती है।
शिलालेख का प्रारम्भ ''ऊँ नम: शिवाय'' से हुआ है। शिलालेख में अयोध्या, साकेत मण्डल में बने स्वर्ण कलशयुक्त मन्दिर तथा अयोध्या की सुन्दरता का वर्णन है। शिलालेख में वर्णन है कि बलि और दशानन का मानमर्दन करने वाले किसी पराक्रमी का यह मन्दिर है।
इसके अतिरिक्त लगभग 250 अन्य पुरावशेष उस ढांचे से प्राप्त हुये जो आज श्रीराम जन्मभूमि परिसर में भारत सरकार के नियंत्रण में रखें हैं। इनमें से अनेक पुरावशेष ठीक वैसे ही हैं जैसे समतलीकरण के दौरान 18 जून, 1992 को प्राप्त हुए थे।
पूजा के अधिकार को अदालत की मान्यता
8 दिसम्बर, 1992 की प्रात:काल ब्रह्म मुहुर्त के पूर्व ही केन्द्रीय सुरक्षा बलों ने सम्पूर्ण श्रीराम जन्मभूमि परिसर अपने अधिकार में ले लिया, तब तक कारसेवक रात-दिन परिश्रम करके श्रीरामलला विराजमान के लिए एक अस्थायी कपड़े का मन्दिर का निर्माण कर चुके थे। रामलला के चारों ओर लकड़ी के बांस बल्लियाँ लगाकर कपड़े की छत और उसकी सुरक्षा के लिए चारों ओर र्इंटों की पक्की दीवार बना दी गई थी। इसी को आज Makeshift Structure कहते हैं। श्रीरामलला विराजमान की पूजा अर्चना तो 6 दिसम्बर की सायंकाल को ही प्रारम्भ हो चुकी थी।
सुरक्षा बल की देखरेख में भगवान की पूजा-अर्चना जारी रही परन्तु जनता का आना-जाना बन्द हो गया। 21 दिसम्बर 1992 को श्री हरिशंकर जैन एडवोकेट (लखनऊ) ने हिन्दू अधिवक्ता संघ की ओर से उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के सम्मुख याचिका (5314/1992) दायर करके प्रार्थना की कि शासन को निर्देशित किया जाए कि ''वे श्रीरामलला विराजमान के दर्शन-पूजन-आरती-भोग में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित न करे, आरती पूजा-भोग सम्पन्न करने के लिए पुजारियों को श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर में प्रवेश की अनुमति दी जाए, पूजा सम्बन्धी कर्मकाण्ड में बाधा न डाली जाए, ढांचे के मलबे से प्राप्त ऐतिहासिक महत्व के पुरावशेषों की सुरक्षा एवं संरक्षण किया जाए”।
न्यायमूर्ति श्री हरिनाथ तिलहरी एवं न्यायमूर्ति श्री ए.एन गुप्ता की खण्डपीठ ने 01 जनवरी 1993 को याचिका स्वीकार करते हुए, वादी के पक्ष में निर्णय दिया। जनता को दर्शन की आज्ञा पुन: प्राप्त हो गई।
अदालत की भूमिका
अयोध्या विवाद से सम्बंधित पाँच मुकदमे चल रहे हैं। प्रथम वाद 1950 में श्री गोपाल सिंह विशारद द्वारा (सिविल वाद संख्या 2/1950) सिविल जज फैजाबाद की अदालत में दायर किया था जिसमें मांग की गयी थी कि भगवान के निकट जाकर दर्शन और पूजा करने का वादी का अधिकार सुरक्षित रखा जाए, इसमें किसी प्रकार की बाधा या विवाद प्रतिवादियों द्वारा खड़ा न किया जाए तथा ऐसी निषेधाज्ञा जारी की जाए ताकि प्रतिवादी भगवान को अपने वर्तमान स्थान से हटा न सके।
इसी प्रकार की मांग करते हुए दूसरा वाद (संख्या 25/1950) परमहंस रामचन्द्रदास जी महाराज ने दायर किया। श्री विशारद के वाद में निचली अदालत (ट्रायल कोर्ट) ने अन्तरिम निर्णय देकर श्रीरामलला की मूर्तियाँ उसी स्थान पर बनाए रखने तथा हिन्दुओं द्वारा उनकी पूजा अर्चा, आरती व भोग निर्बाध जारी रखने का आदेश दिया तथा एक रिसीवर नियुक्त कर दिया। इस अन्तरिम आदेश की पुष्टि इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा अप्रैल, 1955 में कर दी गई।
तृतीय वाद सन् 1959 में निर्मोही अखाड़ा द्वारा (संख्या 26/1959) दायर करके मांग की गई कि श्रीराम जन्मभूमि की पूजा व्यवस्था की देखभाल का दायित्व निर्मोही अखाड़े को दिया जाए और रिसीवर को हटा दिया जाए।
चतुर्थ वाद 18 दिसम्बर, 1961 को (अर्थात भगवान प्राकटय के 11 वर्ष 11 माह व 26 दिन बाद) उत्तर प्रदेश सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड द्वारा (संख्या 12/1961) दायर किया गया। अपने वाद में विवादित ढांचे को ''मस्जिद'' घोषित करने तथा पूजा सामग्री हटाने और ढांचे के चारों ओर के आसपास के भू-भाग को कब्रिस्तान घोषित करने की मांग की।
यह भी उल्लेखनीय है कि सुन्नी वक्फ बोर्ड ने फरवरी, 1996 में कब्रिस्तान सम्बंधी अपनी प्रार्थना को वापस ले लिया। परिणामस्वरूप विवाद केवल तीन गुम्बदों वाले ढांचे तक ही सीमित रह गया। यही छोटा सा स्थान अदालत के समक्ष आज विचाराधीन है।
अन्तिम व पंचम वाद भगवान श्रीरामलला विराजमान की ओर से 01 जुलाई, 1989 को श्री देवकीनन्दन अग्रवाल (पूर्व न्यायाधीश इलाहाबाद हाईकोर्ट) द्वारा दायर किया गया। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार प्राण-प्रतिष्ठित मूर्ति एक जीवित इकाई है अपना मुकदमा लड़ सकती है परन्तु प्राण-प्रतिष्ठित मूर्ति अवयस्क मानी जाती है। अत: उनका मुकदमा लड़ने के लिए किसी एक व्यक्ति को माध्यम बनाया जाता है।
अत: न्यायालय ने रामलला का मुकदमा लड़ने के लिए श्री देवकीनन्दन अग्रवाल को रामलला के अभिन्न सखा (Next Friend) के रूप में अधिकृत कर दिया। इस वाद में अदालत से मांग की गई थी कि श्रीराम जन्मभूमि अयोध्या का सम्पूर्ण परिसर वादी (देव-विग्रह) का है, अत: श्रीराम जन्मभूमि पर नया मन्दिर बनाने का विरोध करने वाले अथवा इसमें किसी प्रकार की आपत्ति या बाधा खड़ी करने वाले प्रतिवादियों के विरूध्द स्थायी स्थगन आदेश जारी किया जाये।
भारत सरकार द्वारा अधिग्रहण
ढांचा गिर जाने के पश्चात् 7 जनवरी, 1993 को भारत सरकार ने अध्यादेश जारी करके श्रीराम जन्मभूमि का विवादित परिसर व उसके चारों ओर का 67 एकड़ भूखण्ड अधिग्रहीत कर लिया। केन्द्रीय सुरक्षा बल को इस सम्पूर्ण परिसर की सुरक्षा का दायित्व सौंप दिया गया। अनेक लोगों ने अधिग्रहण को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। महामहिम राष्ट्रपति महोदय ने संविधान की धारा 143ए के अंतर्गत अपने अधिकार का उपयोग करते हुये सर्वोच्च न्यायालय से अपने एक प्रश्न कि ''क्या विवादित स्थल पर 1528 ई0 के पूर्व कोई हिन्दू मंदिर या भवन मौजूद था ?'' का उत्तर मांगा। अधिग्रहण के विरूद्ध दायर की गई याचिकाओं तथा महामहिम राष्ट्रपति महोदय के प्रश्न पर एक साथ सुनवाई हुई।
लगभग 20 माह तक सर्वोच्च न्यायालय की 5 सदस्यीय संविधान पीठ ने सभी पक्षों के विचार सुने और बहुमत के आधार पर 24 अक्टूबर, 1994 को अपना निर्णय दिया कि-
1. महामहिम राष्ट्रपति महोदय का प्रश्न हम सम्मानपूर्वक अनुत्तरित वापस कर रहे हैं।
2. भारत सरकार द्वारा किया गया अधिग्रहण विधि अनुकूल है।
3. श्रीरामजन्मभूमि/बाबरी मस्जिद विवादित ढांचे वाले स्थान से सम्बन्धित सभी मुकदमों का निपटारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय की तीन-सदस्यीय पीठ करेगी।
सर्वोच्च न्यायालय के उक्त निर्णय के पश्चात् से सभी वाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ के समक्ष अन्तिम निपटारे हेतु आ गये। आज कुल चार वाद (प्रथम, तृतीय, चतुर्थ व पंचम) ही उच्च न्यायालय के समक्ष विचाराधीन है क्योंकि वर्ष 1990 में परमहंस रामचन्द्रदास जी महाराज ने अपना मुकदमा वापस ले लिया था।
जून 1996 में उच्च न्यायालय लखनऊ पीठ में वादी सुन्नी वक्फ बोर्ड की ओर से गवाहों के मौखिक बयान प्रारम्भ हुए। मई 2002 तक लगभग 6 वर्ष में कुल 28 गवाहों के बयान रिकार्ड कराकर वादी पक्ष ने अपनी गवाही को समाप्त घोषित कर दिया। तत्पश्चात् वाद क्रमांक 5 रामलला विराजमान के गवाहों के बयान लिखना प्रारम्भ हुआ। जुलाई 2003 तक वादी पक्ष ने अपने 16 गवाहों के बयान रिकार्ड कराकर गवाही को समाप्त घोषित कर दिया। गोपाल सिंह विशारद के वाद क्रमांक 1 में भी तीन गवाहों के बयान लिखे गये। अगस्त 2003 में निर्मोही अखाड़ा वाद क्रमांक 3 की गवाही प्रारम्भ हुई, वह भी समाप्त हो चुकी है। इस प्रकार गवाहों के मौखिक बयान रिकार्ड किए जाने का कार्य समाप्त हो चुका है।
राडार तरंगों द्वारा फोटोग्राफी एवं उत्खनन
वाद के मुख्य प्रश्न '' कि क्या 1528 ई0 के पूर्व विवादित स्थल पर कोई हिन्दू मन्दिर खड़ा था ?'' का उत्तर खोजने के लिए उच्च न्यायालय ने स्वयं प्रेरणा से श्रीराम जन्मभूमि के परिसर में राडार तरंगों द्वारा फोटो सर्वेक्षण कराया। सर्वेक्षण रिपोर्ट फरवरी, 2003 में अदालत को प्राप्त हुई। कनाडा के नागरिक विशेषज्ञ ने अपनी सर्वेक्षण रिपोर्ट के निष्कर्ष में लिखा कि :-
"In conclusion, the GPR survey reflects in general a variety of anomalies ranging from 0.5 to 5.5 meters in depth that could be associated with ancient and contemporanous structures such as pillars, foundations walls, slab flooring extending over a large portion of the site. However, the exact nature of those anomalies has to be confirmed by systematic ground truthing, such as provided by archeological tranching."
इसी आधार पर पुरातत्व विभाग को सम्बंधित बिन्दुओं पर वैज्ञानिक तरीके से उत्खनन करके राडार तरंगों की सर्वेक्षण रिपोर्ट की सत्यता को जांचने का आदेश 05 मार्च, 2003 को उच्च न्यायालय ने दिया। पांच मास तक चले उत्खनन कार्य की रिपोर्ट 22 अगस्त, 2003 को पुरातत्व विभाग के द्वारा उच्च न्यायालय को सौंप दी गई। उत्खनन रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि-
The Hon'ble High Court, in order to get sufficient archaeological evidence on the issue involved "whether there was any temple/structure which was demolished and mosque was constructed on the disputed site" as stated on page 1 and further on p. 5 of their order dated 5 march 2003, had given directions to the Archaeological Survey of India to excavate at the disputed site where the GPR Survey has suggested evidence of anomalies which could be structure, pillars, foundation walls, slab flooring etc, which could be confirmed by excavation. Now, viewing in totality and taking into account the archaeological evidence of a massive structure just below the disputed structure and evidence of continuity in structural phasses from the tenth century onwards upto the construction of the disputed structure alongwith the yield of stone and decorated bricks as well as mutilated sculpture of divine couple and carved architectural members including foliage patterns, amalaka, kapotapali doorjamb with semi-circular pilaster, broken octagonal shaft of black schist pillar, lotus motif, circular shrine having pranala (waterchute) in the north, fifty pillar based in association of the huge structure, are indicative of remains which are distinctive features found associated with the temples of north India.
उत्खनन रिपोर्ट के कारण मुस्लिम समाज व कुछ इतिहासकारों, पुरातत्ववेत्ताओं व राजनेताओं में मची खलबली से सारा देश परिचित है। मुस्लिम पक्ष ने उत्खनन रिपोर्ट को रद्द कर दिए जाने की माँग अदालत से की। दोनों पक्षों की ओर से तर्क प्रस्तुत किए गए। अन्तत: उत्खनन रिपोर्ट न्यायालय के रिकार्ड पर रखे जाने का आदेश तो हो गया परन्तु यह भी आदेश हुआ कि सभी पक्ष विशेषज्ञ-पुरातत्ववेत्ताओं को अदालत में लाकर उनके मौखिक बयान के द्वारा उत्खनन रिपोर्ट की समीक्षा करेंगे।
अदालत की वर्तमान स्थिति
अदालत में पुरातत्ववेत्ताओं के उत्खनन रिपोर्ट पर बयान लिखे जाने का कार्य समाप्ति की ओर है। बयान समाप्ति के बाद वकीलों की जिरह प्रारम्भ होगी। जिरह समाप्ति के बाद ही फैसला लिखा जाएगा। उच्च न्यायालय का फैसला घोषित होने के बाद सर्वोच्च न्यायालय में कोई न कोई पक्ष अपील लेकर अवश्य जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय कब और क्या निर्णय करेगा, इसकी भविष्यवाणी भी कोई नहीं कर सकता।
अदालत का फैसला आने के बाद भी उसको क्रियान्वयन करने का नैतिक बल सरकारों के पास होगा या नहीं, यह कहना बहुत कठिन है। बनारस के दोशीपुरा कब्रिस्तान से सम्बंधित शिया व सुन्नी मुस्लिमों के बीच पिछले 110 वर्षों से चले आ रहे विवाद में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा वर्ष 1983 में दिए गए निर्णय का क्रियान्वयन आज तक नहीं हुआ। क्या जागरूक और स्वाभिमानी समाज अपने धर्म की रक्षा का दायित्व सरकार की कृपा पर छोड़ दे ?
मन्दिर निर्माण की प्रगति
सितम्बर, 1990 में अयोध्या में मन्दिर निर्माण हेतु पत्थरों की आपूर्ति तथा ड्राईंग के अनुसार पत्थरों की नक्काशी प्रारम्भ हुई। अप्रैल, 1992 से पत्थर नक्काशी के काम में गति आई। बसन्त पंचमी 1996 से राजस्थान के पिण्डवाड़ा कस्बे में 3 कार्यशालाओं को नक्काशी का काम अनुबन्ध पर दिया गया। कार्य को तीव्र गति से करने के लिए अयोध्या में 2 बड़ी कटर मशीन लगाई गई। संगमरमर की चौखट बनाने का काम मकराना (राजस्थान) में अनुबन्ध पर दिया गया।
आज तक मन्दिर के फर्श पर लगने वाला सम्पूर्ण पत्थर, भूतल पर खड़े होने वाले सभी 106 स्तम्भ, भूतल एवं प्रथम तल के रंगमण्डप और गर्भगृह की दीवारें, भूतल की छत के बीम की नक्काशी पूर्णता की ओर है। नक्काशी किया हुआ सम्पूर्ण पत्थर अयोध्या में रामघाट पर स्थित कार्यशाला में दर्शनार्थ रखा गया है। लकड़ी का बना हुआ मन्दिर का एक माडल तथा वर्ष 1989 में पूजित 2.75 लाख रामशिलाएं भी इसी कार्यशाला में रखी हैं। प्रतिदिन सैंकड़ों दर्शनार्थी इन्हें देखने के लिए आते हैं।
जरा विचार करें
1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात के राजनीतिक नेतृत्व का व्यवहार श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन को समझने में बहुत सहायक है। आजादी के तत्काल बाद झण्डा बदला गया, युनियन जैक के स्थान पर तिरंगा लाया गया अर्थात युनियन जैक में गुलामी और तिरंगे में स्वातंत्र्य और स्वाभिमान के दर्शन किए गए। देश में जहाँ-जहाँ रानी विक्टोरिया की मूर्तियाँ स्थापित थीं, उन सबको एक-एक करके हटाया जाने लगा। अयोध्या का तुलसी उद्यान, अमृतसर का विक्टोरिया चौक, दिल्ली में चांदनी चौक का पार्क इसके उदाहरण हैं।
दिल्ली में इण्डिया गेट के नीचे खड़ी अंग्रेज की मूर्ति हटाई गई। देश में सड़कों व पार्कों के नाम बदले गए, जी.टी. रोड, महात्मा गांधी मार्ग बन गया। कम्पनी गार्डन को गांधी पार्क कहा जाने लगा। दिल्ली के इर्विन हॉस्पिटल, विलिंग्टन हॉस्पिटल, मिन्टो ब्रिज ये सभी नाम बदल दिए गए। कारण स्पष्ट है कि इन नामों में विदेशी गुलामी की दुर्गन्ध आती थी।
गुलामी के प्रतीकों को समाप्त करने की प्रेरणा से प्रेरित होकर प्रथम गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल जी ने सोमनाथ मन्दिर की मुक्ति का संकल्प लिया था, केन्द्रीय मंत्री मण्डल नें प्रस्ताव पारित किया, महात्मा गांधी जी की सहमति से एक न्यास बना, रातों-रात सोमनाथ मन्दिर के स्थान पर बना ढांचा समुद्र में चला गया, सम्पूर्ण भूखण्ड न्यास को समर्पित हो गया, एक भव्य मन्दिर का निर्माण हुआ।
मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा के समय प्रथम राष्ट्रपति डॉ0 राजेन्द्र बाबू जी स्वयं उपस्थित रहे। उनका भाषण हम सबके लिए व आने वाली पीढ़ियों के लिए भी मार्गदर्शक है। धीरे-धीरे मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति शुरू हो गई। पटेल जी की मृत्यु के बाद इस्लामिक गुलामी के चिन्हों को हटाने में राजनेताओं को अपना राजनीतिक जीवन समाप्त होता दिखने लगा।
मुस्लिम समाज चुनावों में मुस्लिम हितों की रक्षा के लिए मतदान करता है जबकि हिन्दू समाज अपनी जाति, भाषा, पंथ के आधार पर अपनी रूचि के व्यक्ति को जिताने में आनन्दित होता है। वह अपने सम्मान की रक्षा के लिए वोट नहीं देता। इस परिस्थिति को बदलने का कार्य श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन ने किया। मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति पर अंकुश लगा।
हिन्दू समाज अपने, अपने पूर्वजों, अपने धर्म, अपनी संस्कृति के सम्मान की रक्षा के लिए जागरूक बना। यदि अंग्रेजों की गुलामी के प्रतीकों को हटाना राष्ट्रभक्ति है, सोमनाथ मन्दिर का निर्माण सरदार पटेल जी की राष्ट्रभक्ति का प्रतीक है, यदि प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र बाबू जी का सोमनाथ मन्दिर में प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर उपस्थित रहना उनकी राष्ट्रभक्ति का प्रतीक है, तो श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति का आन्दोलन भी राष्ट्रभक्ति का ही प्रतीक है।
श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन यह किसी मन्दिर को प्राप्त करने की सामान्य लड़ाई नहीं है। कभी भी न बदलने वाली जन्मभूमि को प्राप्त करने का यह संघर्ष है। जन्मभूमि भी एक ऐसे महापुरुष की जिसे कोटि-कोटि हिन्दू भगवान के रूप में पूजता है, मृत्यु के समय भी जिस नाम के उच्चारण की लालसा रखता है। इससे भी अधिक यह संघर्ष विदेशी इस्लामिक आक्रमणकारी के कलंक को मिटाने का संघर्ष है, यह संघर्ष हिन्दू समाज की सांस्कृतिक आजादी की लड़ाई है।
एकमेव मार्ग
वार्तालाप के दौर अनेक बार हो चुके। श्री चन्द्रशेखर जी के प्रधानमंत्रित्व काल में मुस्लिम व यूरोपीय इतिहासकारों के प्रमाण, राजस्व सम्बन्धी प्रमाण एवं हिन्दू समाज की परम्पराओं से सम्बंधित प्रमाण सरकार को सौंपे जा चुके हैं। जून, 1992, दिसम्बर, 1992 तथा फरवरी, 1993 में जमीन से प्राप्त पुरावशेष सरकार के कब्जे में है। 6 दिसम्बर, 1992 को प्राप्त शिलालेख सरकार के नियंत्रण में है। उसका छाप अदालत में सुरक्षित है।
शिलालेख का पाठ विशेषज्ञों द्वारा पढ़ा जा चुका है। राडार तरंगों द्वारा किए गए सर्वेक्षण रिपोर्ट की पुष्टि पुरातात्विक उत्खनन से हो चुकी है। अत: भारत सरकार गुलामी के कलंक को हटाने के लिए कानून बनाए और यह स्थान हिन्दू समाज को सौंप कर सांस्कृतिक स्वातंत्र्य का मार्ग प्रशस्त करे।
(लेखक विश्व हिन्दू परिषद के संयुक्त राष्ट्रीय महामंत्री हैं)
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